छप्पय छंद, परिभाषा, व्यवस्था और उदाहरण
Chhapaya chhand kaise likhe. हिंदी छंद हिंदी साहित्य में छंदों का विशेष महत्व है । छंदों का पूरा लेखन । छंद विधा में अपनी रचना को अख सजी संवरी की भाँति पेश करता है। रासछंद अलंकार से सजी काव्य की सौदर्यं दो गहमी हो गई है। गलत तरीके से व्यवहार करने वाले गलत तरीके से व्यवहार के साथ व्यवहार किया जाता है।
प्राचीन काल में लिखा गया था, राम चरित्र मानस (तुलसी दास कृता), पंचवटी, साकेत (मैथलीशरण गुप्त)। इन छंदों की मात्रा भिन्न में भिन्न भिन्न होती है। गमछे से छप्पयछंद भी एक है । छप्पय छंद कैसे लिखे ( chhapaya chhand kaise likhe ) के बारे में छंद को सही ढंग से क्या चाहिए? -
छप्पयछंद की परिभाषा - छप्पय छंद की परिभाषा -
छंद किसे कहते हैं - छप्पय छंद एक हिन्दी साहित्य की विधा है । यह छंद शब्द ‘ चद ‘ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है – खुश करना । हिंदी साहित्य के अनुसार अक्षर, अक्षरों की संख्या, मात्रा, गणना, यति, गति से संबंधित किसी विषय पर रचना को छंद कहा जाता है । अर्थात छंद में निश्चित चरण, उनकी लय, गति, वर्ण, मात्रा, यति, तुक, गण से नियोजित पद्य रचना को छंद कहते हैं।
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छप्पय छंद विधान क्या है - Chhappay chhand ka vidhan -
छप्पय छंद बहुत ही प्राचीन छंद है । आ. नाभादास जी ने अपने ग्रंथ "भक्तकमाल " में इसका सर्वप्रथम प्रयोग किया और उन्ही के अनुसार लघु, दीर्घ वर्णों के यह छंद 71 प्रकार का होता है यह रोला और उल्लाला दो छंदों से मिलकर बनाता है ।
Chhappya chhand in hindi
विधान - छप्पय छंद = रोला छंद + उल्लाला छंद
- प्रारंभ की चार पंक्तियाँ रोला होती है 11,13 मात्रा पर
- रोला के विषम चरण का कल संयोजन - 4421 या 33221
- सम चरणों का कल संयोजन - 3244
- बाकी दो पंक्तियाँ उल्लाला होती है 13, 13 या 15, 13 मात्रा पर
- उल्लाला के विषम चरणों का कल संयोजन - 44 212 या 332 212 या 244 212 / 233212
- सम चरणों का कल संयोजन- 44212 या 332212
- क्रमागत दो दो पद में तुकान्त ।
छप्पय छंद के उदाहरण अवलोकनार्थ
ज्ञान दायिनी ज्योति, गिरी दुर्गा गायत्री ।
सर्व व्यापिनी मातु, नमः हे माँ स्वर दात्री ।।
मातु शारदा शुभ्र, विमल भावों की देवी ।
सकल चराचर जीव, परम पद वंदन सेवी ।।
जड़ चेतन में संगीत की, देती शक्ति सरस्वती ।
माँ स्वरागिनी पद्मासना, ज्ञान दान दे भारती ।।
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वंदन बारंबार, करूँ मैं वीणापाणी ।
दे दो माँ वरदान, मधुर हो मेरी वाणी ।।
ज्ञान दायिनी मातु, ज्ञान का भर दो गागर ।
मैं हूँ बूँद समान, आप करुणा की सागर ।।
निस दिन मैं पूजन करूँ, करना उर में वास माँ ।
माँगू कृपा प्रसाद मैं, देना नव उल्लास माँ ।।
जीवन तुझ पर वार, बनूँ माता आराधक ।
तपो भूमि संसार, काव्य की मैं हूँ साधक ।।
सेवक की है चाह, बनूँ तेरी पूजारन ।
रचूँ नवल साहित्य, तुम्हारी बनकर चारन ।।
धारदार हो लेखनी, मिले प्रेरणा आपकी ।
दे पाऊँ उपहार मैं, काव्य कुंज की पालकी ।।
सुकमोती चौहान "रुचि"
बिछिया, महासमुन्द, छ.ग.
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धन्यवाद संपादक महोदय
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