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Hindi Essay आधुनिक युग के निर्माता थे स्वामी विवेकानंद

Hindi Essay आधुनिक युग के निर्माता थे स्वामी विवेकानंद


 


भारत की माटी सोना उगलती हैं। धन -धान्य से समृद्ध अपना देश है । इस धरती पर अनेक महापुरुषो ने जन्म लिया है, जिन्होंने विश्व पटल अपने देश का नाम ऊंचा किया है। उन महापुरुषों में  स्वामी विवेकानंद भी एक महान हस्ती थे । उन्नीसवीं शताब्दी भारतवर्ष के लिए विधाता का वरदान साबित हुई । वे आधुुुनिक भारत के 
निर्माता थे । वे अनूठे महान साहित्यकार, वैज्ञानिक, समाज सुधारक, राजनैतिक  महापुरुषों का इस समय धरा पर अवतरण हुआ था । उन पर भारत देश को अभिमान है ।

Introduction of Sawami vivekanand - 


जीवन परिचय - जिस समय  अंग्रेजी सियासत  दीन हीन अवस्था में देश था। उस समय स्वामी विवेकानन्द (swami Vivekanand ) ने 12 जनवरी 1963 ई० में कोलकाता में एक क्षत्रिय परिवार में जन्म लिया । उनके कोलकाता  हाई कोर्ट के नामी वकील  श्री विश्वनाथ दत्त जी थे । सोमवार पौष संक्रांति कै ६ बज कर ३३ मिनट पर विवेकानंद जी का जन्म हुआ था । कोलकाता नगरी के उत्तरी भाग में सिमुलियामुहल्लें में गौर मोहन मुखर्जी स्ट्रीट पर उनका भव्य भवन था । माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था  ।माता-पिता ने बालक का नाम नरेंद्र रखा था । नरेंद्र जी बचपन से ही बहुत मेधावी थे 1889 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की । कोलकाता  के जनरल असेम्बली नामक कालेज में प्रवेश लिया । इतिहास दर्शन, साहित्य आदि विषयों का अध्ययन किया था । स्वामी विवेकानंद जी का कार्य  वेद प्रतिपादित  धर्म का रक्षण और पोषण करना था ।

 19वीं शताब्दी तक आते-आते उस समय तक  हिन्दू धर्म अनेक शाखाओं और न उपशाखाओं में बंट गया था । उन्होंने हिंदू धर्म की रक्षा की  । सबको जोड़ा । उन्होंने कहा भारत के लिए विद्वानों ने कितना लिखा है। हम सबको विभिन्नता में एकता का परिचय देना होगा । उस समय तक भारत के लोग अपने को कम समझने लगे थे । जो लोग तन से भारतीय और मन से यूरोपिय थे उन्हें फटकार लगाते हुए कहा कि सचाई यह समझ लो  कि अब भी हमारे पास जगत् के सभी यथार्थ भंडार  में जोड़ने के लिए बहुत कुछ है, इसलिए हम बचें है। इसे तुम लोग अच्छी तरह से समझ लो जो अंदर बाहर से साहब बने बैठे हैं, वह यह कह कर चिल्लाते घूमते हैं । हम लोग नर पशु हैं । हे यूरोप वासी, तुम्हीं हमारा उद्धार करो । नरेंद्र जी ने कहा जगे रहो  । आप सर्वोत्तम है । आप कर्म करते रहिए । मंजिल सामने है‌। लक्ष्य पर पहुंच सकते है‌।


नटखट नरेंद्र - बालक  के उद्यम  से माता तंग आ जाती थी ।  तो वह शिव शिव कहकर बालक पर जल छिड़क देती थी वह शांत हो जाते थे । कहते हैं कि बालक नरेंद्र को जब क्रोध आता तो उन्हें संभालना कठिन हो जाता था।तब माँ बाल्टी भर पानी डाल नहला देती थी  और वह शांत हो जाते थे ।

विलक्षण स्मरण शक्ति - बालक नरेंद्र की स्मरण शक्ति विलक्षण थी । रामायण, गीता, महाभारत आदि  को एक बार सुनने मात्र से उन्हें याद हो जाती थी । जो एक बार पढ़ने या बाच ले वह उन्हें कंठस्त हो जाता था।

ध्यानसिद्ध, जन्मजात योगी - बालक नरेंद्र जन्मजात योगी थे । सुंदर मुख मण्डल पर सदा चमक रहती थी। स्पदनहीन देह, पद्मासन पर ध्यानस्त कुमार योगी विद्यमान थे । सामने विषधर सर्प भीषण बन फैलाकर मौन मुख्यधारा की भांति निश्चेष्ट पड़ा हुआ था। कुछ ही क्षण में सर्प अंतर्ध्यान हो गया ।जब लोगों ने इसकी चर्चा की तो वे बोले - मैं सांप की बात विल्कुल नहीं जानता,मैं तो एक अपूर्व आनन्द का उपभोग कर रहा था । मुझे कुछ नहीं मालूम ।

ज्योतिपिंड के दर्शन - मेरे पिता ने एक बार बताया कि शिशु जीवन से ही नरेंद्रनाथ जी, दोनो नेत्र बंद करते  थे तो दोनों भौंहों के बीच में एक गोलाकार दिव्य ज्योति के दर्शन करते थे । यह ज्योति विस्तृत होकर उनकी समस्त देह में फ़ैल जाती थी। चिन्मय ज्योति - समुद्र में उनका " मैं" पन लुप्त हो जाता था और वो निद्रामग्न हो जातें थे‌।
बचपन और परोपकारिता - बचपन में शरारती  चंचल थे । शरीर बल, चरित्र बल दोनों का मणिकांचन संयोग था । एक बार एक बालक को घोड़ा गाड़ी के नीचे आने से खींच कर उसे बचा लिया था ।यह सुनकर मां बहुत खुश हुई । ढेरो आशीष दी ।

ब्रह्म समाज की ओर उन्मुख - धीरे-धीरे आप ब्रह्म  समाज के सदस्य बन गये । एक बार देवेंद्र नाथ ठाकुर ने उनसे कहा - तुम्हारे अंग प्रतंग में योगियों के चिन्ह विद्यमान है । ध्यान करने से  तुम्हें शांति और सत्य की प्राप्ती होगी ।

परम हंस के दर्शन -
एक दिन उनके सम्बंधी रामचंद्र ने उनसे कहा - यदि वाकई में  सत्य की प्राप्ती तुम्हारा लक्ष्य है तो ब्रह्म समाज आदि छोड़ दक्षिणेश्वर में श्री राम देव के पास चले जाओ । उन्होंने ऐसा ही किया । परमहंस जी उनको देख बहुत खुश हुए । हाथ जोड़कर संबोधन करते हुए कहा - मैं जानता हूँ, तुम सप्तर्षि मण्डल के सदस्य हो- नर रूपी नारायण हो जीवों  का कल्याण की कामना से तुमने यह शरीर धारण किया है।"
गुरु कृपा अनुभूति- पिता श्री ने उनके बारे में अद्भुत कहानी सुनाई । बताया एक बार श्री राम कृष्ण परमहंस ने इकदम उठकर अपना दाहिना चरण उठाया उसके स्कंध पर रख दिया । उसी समय नरेंद्र को अभूतपूर्व भावान्तर हुआ । आसपास की सभी वस्तुएं  अंनत सत्ता में विलीन हो गई वो भय से चीख उठे। अजि तुमने यह क्या किया मेरे मां बाप जो है । कहां गायब हो गये । श्री राम कृष्ण जी ने उनकी छाती पर हाथ रखा वैसे ही वह पुनः स्वभाविक स्थिति में आ गए ।

सिर पर विपत्तियों का पहाड़ - नरेंद्र जी बी०ए०की पढ़ांई कर रहे थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया  ।अब वह पढ़ाई के साथ नौकरी भी ढूंढ़ रहे थे जिससे मासिक व्यय पूरा हो सके ।एक रिश्तेदार ने घर से निकालने के लिए मुकद्दमा दायर कर दिया । नरेंद्र जी ‌ने निडर होकर ज़बाब दिया ।उस समय वह वकालत पढ़ रहे थे । तब जज ने मुस्कराकर कहा युवक तुम बहुत बड़े वकील बनोगे ।सच में वह वकील नहीं अपितु विश्व मंच पर वह भारत राष्ट्र के गौरव एवं मानवता की गरिमा की रक्षा करने वाले बड़े वकील बने ।


भारत दर्शन -- गुरु जी की महती इच्छा से प्रेरित हो
1888 ई० में तीर्थ भ्रमण को निकले और काशी घाम पहुंचे कुछ दिन वहां रहकर श्यामनगर मठ लौट आयें। वृंदावन में एक व्यक्ति को चिलम पीते देखा उससे चिलम पीने को मांगी, उसने कहा - महाराज मैं भंगी हूं ।
वह आगे चल पड़े - कुछ दूर जाने पर ध्यान आया ओह मैंने यह क्या किया ? वापस आएंँ उसके साथ बैठकर चिलम पी । उनके जीवन की घटनाओं पर दृष्टि पात करते हुए पिता श्री बोले कि सच्ची घटनाएं बताता हूँ । राधा कुंड में स्नान कर रहे थे कि उनका  कोपीन (लंगोटी ) थी जो   बंदर ले गया था ।  इससे वह बहुत परेशान हुए तभी देखा कि व्यक्ति तीव्रता से आया और कुछ खाद्य पदार्थ तथा कोपीन देकर इकदम जंगल में गायब हो गया ।वे आनन्द विभोर हो गये ।वहीं श्री राधा कृष्ण का गुणगान करने लगे । उनका ध्यान ईश्वर में बहुत लगता था । प्रथम शिष्य स्वामी जी शरदचन्द्र थे । वह सिमिलर जाना चाह रहे थे । उन्होंने प्रमदादास बाबू जी से कहा - जब मैं लौटूंगा तो समाज के ऊपर बम की भांति फूट पडूंगा और समाज मेरे पीछे चलेगा । अलवर भी गएंँ। वहाँ से बहुत जगह भ्रमण करते रहे। वह धर्म और देश के लिए प्रतिबद्ध थे‌। सत्य मेरी तपस्या - मु्र्ति पूजा पर विश्वास नहीं था। कई शहरों में भ्रमण किया ।लोक मान्य तिलक से रेलगाड़ी में मुलाकात हो गई ।

एक बार मैसूर नरेश‌ ने कहा तुम्हें मुझसे डरना चाहिए । उन्होंने कहां जड़ देह के अनिष्ट की आशंका से मैं सत्य छोड़ दूं ? आप हिन्दू राजा होकर क्या हिंदू संन्यासी से भी अनुचित कार्य की आशा रखते हैं । स्वदेश से विदाई - अपना देश छोड़ते समय उनकी आंखों में आंसू थे उन्होंने कहा - सभी धर्म स्तरीय हैं और वे ईश्वर की उपलब्धि के विभिन्न उपाय है । धर्म का प्रचार करने के लिए स्वामी  जी 31 मई 1893  ई० में  शिकागो के लिए प्रस्थान किया । अनेक चमत्कारी घटनाएं उनके जीवन में घटी । जो चमत्कार से कम नहीं लगती हैं। एक बार स्वामी जी बहुत कष्ट में थे, कल से  कुछ खाया भी नहीं था । तभी एक व्यक्ति आया बाबा आप धूप में क्यो बैठे हैं यह कुछ भोज्य पदार्थ और जल है आपके लिए ।स्वामी जी द्रवित हो गएं। पग -पग पर ईश्वर साथ था ।पर शिकागो में आपसे  वहाँ का पता खो गया , रात पैकिंग बांक्श में बितायी । सच में ऐसे ही कोई महान नहीं बनता है बहुत कष्ट  झेलने पड़ते हैं । बहुत संघर्ष करने पड़ते हैं ।

Speech in shikago by sawami vivekanand - 


शिकागो की धर्म सभा - अद्भुत करिश्मा हुआ मिसेज जार्ज डब्ल्यू हैल की सहायता मिली और वह धर्म महासभा में हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार कर लिएं गएंँ । इसमें  जाने के लिए बड़े-बडे लोगों के सामने वह घबरा रहे थे । जब स्वामी जी को ४-बजे अपरान्ह बुलाया गया तो माँ सरस्वती को प्रणाम किया। ख़ां बैरोज ने उनका परिचय दिया।

अमेरिका वासी भाई और बहनों 
 इतना प्रभावशाली भाषण था जनता स्वामी जी के पास आने और देखनों को कुर्सी पर चढ़ गई । नैशनल हैराल्ड आदि में लेख के बारे में छपता रहा । इससे ईसाई मिशनरी ईष्या से जल उठे । सच कहूं तो शिकागो की घ्रूममलिन क्षितिज पर भारतीय सूर्य के समान देदीप्यमान, उन्नत शीश, अंदर्भेदी दृष्टि, गैरुआ वस्त्रों विभूषित मनोहर सौम्य, मुख मण्डल पर तेज, महिमामयी मूर्ति  से लोगों ने जाना । उनके अंदर अपनी जाति, देश का ज्वार हिलोरें लेता रहा। मर्यादा और गुणवत्ता के रूप में वे जाने गये । हिंदी में भाषण दिया था । सब कोई न कोई उपाय से उनका अपमान करने की फिराक में रहते थे ।

पाश्चात्य जगत को चैतावनी
- पाश्चात्य जगत को चैतावनी देते हुए कहा - सावधान मैं दिव्य दृष्टी से देखता रहा हूं, सारा पाश्चात्य जगत जवालामुखी पर स्थित है  ।वह किसी भी समय पर आग उगलने कर पाश्चात्य जगत का ध्वंस कर सकता है अभी भी तुम सावधान न हो पाओगे तो आगामी पचास वर्षों में तुम्हारा नाश अवश्यम्भावी है । मिनि निवेदिता उनके सम्पर्क में आई और उनकी शिष्या बन गई । स्वामी जी करुण हृदय थे । दयालु थे।

कर्म पर विश्वास
- जैसा कर्म वैसा फल मिलता है । गौ हमारी माता हैं । दरिद्र को भी वे  महान मानते थे ।देश का नाम ऊंचा किया । देश के आगे उनके लिए कुछ नहीं था।

 देहावसान - स्वं स्वामी जी ने  कहां था - मैं चालिसवां वर्ष पार नहीं करूंगा । यह वाणी अक्षरशः सिद्ध हुई । 4 - जुलाई 1902 को उन्होंने प्राण त्यागे ।

 सारांश में भारत के ऐसे  महान पुरुषों की आज भी जरुरत है । समाज विसंगतियों और दुर्भावनाओं से घिरा हुआ है । ऐसे  में स्वामी विवेकानंद सा सपूत चाहिए ।जो हिरण माता के आंँसू  पौंछ सके । वह गीता से बहुत प्रभावित थे । निडर, देश भक्त, गरीबों से प्रेम करते थे ।मुख मंडल पर तेज । ऐसा सुंदर माणिक मणी सा उनका व्यक्तित्व और कृतित्व था । शिष्यों पर भाषण देकर लोगों अचम्भित कर दिया था ।

 उर्मिला श्रीवास्तव 'उर्मि' बैंगलोर
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